Wednesday, July 13, 2011

संत मन

नवम्बर २००० 
चलो सखि, यह मन संत बनाएँ ! यदि यह मन ( जो सारे क्रिया कलापों का केन्द्र बिंदु है) संत बन  जाये तो हम अपने सहज स्वरूप को प्राप्त कर सकते हैं. ऐसा मन जो आलोचना नहीं करता, नुक्ताचीनी से परे है, कुछ चाहता नहीं है, अपेक्षा नहीं रखता, लोभी नहीं है,  जो मुक्त है परम्पराओं से, पूर्वाग्रहों से, जड़ मान्यताओं से. मन जो कहीं अटका नहीं है, गतिमान है, संत की तरह, जल की धार की तरह बहता जाता है तट को भिगोता हुआ पर तट से बंधता नहीं. जिस पर कोई लकीर नहीं पड़ती जो प्रेम से ओत-प्रोत है, जीव मात्र के प्रति प्रेम से, जो अमानी है. 

1 comment:

  1. और ऐसा हो सकता है तब ,जब हम मन को ईश्वर के लिए समर्पित कर दें .

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