सितम्बर २०००
विवेकी को इस जगत से या परमात्मा से कुछ पाने
की इच्छा नहीं रहती, वह तो पूर्ण हो चुका होता है. उसे कुछ पाना शेष नहीं रहता
बल्कि छोड़ना ही शेष रहता है. संसार में आसक्ति को छोड़ना, सुख बुद्धि को छोड़ना, विकारों
को छोड़ना और धीरे-धीरे काल्पनिक वृत्तियों को त्याग कर अपने आप में ठहर जाना. वह अपने
सुख-दुःख के लिये स्वयं को जिम्मेदार मानता है, मानता ही नहीं बल्कि जानता है,
क्योंकि विवेकी कोई भी निर्णय स्वयं के अनुभव के आधार पर करता है.
और विवेक तो परमात्मा की कृपा ही से मिलता है.कृपा तब मिलती है जब केन्द्र में परमात्मा ही बसा हो.बसा तो हमेशा ही से है पर आँखे उधर दुःख में ही मुडती हैं.पर जब दुःख मिलता है तो शिकायत होती है कि हमे ही क्यों दुःख मिला. पर इस शिकायत में भी मन ठहरता तो है है और ठहरते ही विवेक का जागरण भी होने लगता है.
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