जुलाई २०००
जैसे तरंग सागर में है और सागर तरंग में है, वैसे ही हमारा मन आत्मा में और आत्मा मन में है. यदि यह स्मरण सदा बना रहे बल्कि अपना अनुभव हो जाये तो हम व्यर्थ की चेष्टाओं से बचे रहेंगे, अपने सामर्थ्य व शक्ति का सही उपयोग हम कर सकेंगे. अभी तो हमारा बहुत सा वक्त पानी को कूटने जैसी व्यर्थ क्रियाओं में चला जाता है. अपने मन की चाबी व्यक्ति, वस्तु तथा परिस्थिति को सौंप कर हमने स्वयं ही परतंत्रता मोल ले ली है, जबकि हमारा सत्य स्वरूप शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सद चित आनंद है.
आत्मा और मन के अन्तर को बहुत ही सरल शब्दों में अभिव्यक्त कर दिया है.पढ़ कर आनंद आ गया .
ReplyDeleteachhi post..
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