मैं, मेरे का भाव उत्पन्न करने वाली, राग-द्वेष पैदा करने वाली, एक दायरे में सीमित करने वाली तथा अखंड तत्व के प्रति उदासीन करने वाली बुद्धि अनर्थकारिणी है. परमार्थ तत्व को मानने वाली, विवेक व वैराग्य उत्पन्न करने वाली, ईश्वरीय ऐश्वर्य का अनुसंधान करने वाली, प्रकृति के रहस्यों को समझने व सराहने वाली बुद्धि अर्थकारिणी है. ईश्वर का ऐश्वर्य चारों ओर बिखरा पड़ा है, ब्रह्मांड के असंख्य नक्षत्रों, ग्रहों, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी और उस पर स्थित बर्फीले पर्वत, नीला सागर, हरियाली, जंगल के रूप में और उसका वैभव फलों के मधुर रस, पंछियों की मधुर बोली, और जीवन के पोषक तत्वों के रूप में हमें प्राप्त है, इस अनंत ईश्वरीय प्रसाद की कद्र करने वाली बुद्धि अर्थकारिणी है.
आपके सुन्दर मन के सुन्दर भावों को पढकर बहुत अच्छा लगा.
ReplyDeleteभगवद्गीता (अध्याय २ श्लोक ४१)के अनुसार
'व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन'
व्यवसाय करने वाली बुद्धि 'एक' ही(निश्चयात्मिका/determined) होती है,जो निश्चित होकर केवल प्रभु के चिंतन मनन करने का ही व्यवसाय करती है.
अस्थिर विचारवाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त रूप से बटीं हुई होती है.