अप्रैल २००१
हमारे कर्म यदि हमारे अहंकार का पोषण करने वाले होंगे तो मुक्ति का ख्याल भी दिल से निकाल देना होगा. हम मनसा, वाचा कर्मणा जो कुछ भी करें सभी अंतरात्मा की प्रसन्नता हेतु हों न कि अहं को संतुष्ट करने के लिये. तभी हमारा जीवन उस महान सूत्रधार का प्रतिबिम्ब बनेगा. अपनी संवेदना को तीव्रतर करते हुए भावनाओं को पुष्ट करते हुए तथा चिंतन को गहन करते हुए एक दर्शन तलाशना होगा जो हमें अध्यात्म मार्ग पर ले जायेगा, जो भीतर से उपजेगा वही सार्थक होगा, सुंदर भी और वही शाश्वत भी.
बिल्कुल सही कहा आपने। धन्यवाद।
ReplyDeleteआपके विचार बहुत अच्छे लगतें हैं,अनीता जी.
ReplyDeleteमुश्किल तो यह है कि न तो हम 'मुक्ति' के बारे में और न ही 'अहंकार' के बारे में ज्यादा जानतें हैं.अज्ञान से ज्ञान की ओर बढ़ना
होगा इसके लिए.
असतो मा,सद् गमय
तमसो मा ,ज्योतिर्गमय
जहाँ तक मैंने जाना है मुक्ति का अर्थ है आत्मज्ञान या कहें आत्मज्ञान होने पर ही हम विकारों से मुक्त हो सकते हैं, और अहंकार है आत्मज्ञान में बाधा...खुद को कुछ भी मानना ही अहंकार है.
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