Thursday, February 2, 2012

ध्यान की महिमा


हम ईमानदार क्यों नहीं रहते, अन्यों के साथ व अपने साथ भी. अपनी कमियों को छिपाना चाहते हैं. दूसरों की दृष्टि में नेक बनने की चाह हमें सच्चा होने से रोकती है. गुणवान होना व गुणवान दिखना दोनों ही सूक्ष्म वासनाएं ही तो हैं. हम अपने सहज स्वरूप में स्थित रहें तो बहुत सारी परेशानियों से बच जाते हैं. आत्म राज्य के अधिकारी होने की पहली शर्त यही है कि हम अपने सहज रूप में रहें. ईश्वर व हमारे बीच जो पर्दे हैं उनमें अहं सबसे प्रमुख है, यही हमें दूसरों की दृष्टि में बेहतर बनने को प्रेरित करता है और हम अपने पथ से भटक जाते हैं. नियमित ध्यान करने से सब कुछ अपने आप होने लगता है, तब हमें अलग से प्रयास नहीं करना पड़ता. हृदय के सारे कलुष मिटने लगते हैं, अहं से मुक्ति मिलने लगती है, हमें अपने मूल स्वरूप की झलक मिलती है. सात्विक अभिमान जगता है कि हम स्वयं आनंद स्वरूप हैं, तब जगत से कुछ पाना शेष नहीं रहता. हम आत्मनिर्भर हो जाते हैं, तब हमारे व परम के बीच पर्दे हटने लगते हैं. इस तरह पहले मन को फिर वाणी को फिर कर्मों को हम शुद्ध करते जाते है, हम से ऐसा कुछ भी नहीं होता जिससे किसी अन्य का अहित हो, सजग रहते हुए अपने समय का सदपुयोग करते हुए हम मुक्ति का जीवन जीते हैं.

5 comments:

  1. गुणवान होना व गुणवान दिखना दोनों ही सूक्ष्म वासनाएं ही तो हैं. हम अपने सहज स्वरूप में स्थित रहें तो बहुत सारी परेशानियों से बच जाते हैं.

    आपका सार्थक लेखन ... बहुत बार संबल बनता है दी !

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  2. ध्यान की महिमा को उजागर करती लाजवाब पोस्ट ...

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  3. कुछ अनुभूतियाँ इतनी गहन होती है कि उनके लिए शब्द कम ही होते हैं !

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  4. हम अपने सहज स्वरूप में स्थित रहें तो बहुत सारी परेशानियों से बच जाते हैं. आत्म राज्य के अधिकारी होने की पहली शर्त यही है कि हम अपने सहज रूप में रहें.

    यही तो मुश्किल हो जाता है ....कभी हमारी सहजता भी आत्मघाती सी क्यों लगाती है ...?इस पर कुछ प्रकाश डालियेगा ...!!

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    1. अनुपमा,जी, मुझे लगता है कि सहजता कभी आत्मघाती नहीं लगती उसका अभाव ही हमें दुविधा में डाल देती है. मैं एक व्यवहारिक उपाय बताती हूँ जो मैंने खुद अनुभव किया है, कि जब भी हम असहज हों, देखें कि कौन सा भय है भीतर, कुछ खोने का भय, किसी से कमतर रह जाने का भय, और हर भय शरीर पर एक संवेदना भी छोड़ जाता है, यदि उस समय हम शरीर के प्रति सजग हो जाएँ तो वह प्रभाव खत्म होने लगता है और एक जादू होता है कि भीतर की असहजता भी खोने लगती है. ध्यान रहे सारे डर व्यर्थ हैं, आत्मा के स्तर पर सब समान हैं और आत्मा को न कुछ पाना है न खोना है...

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