Sunday, February 26, 2012

जगती आँखों का स्वप्न


जनवरी २००३ 
संत कहते हैं यह जगत रात के स्वप्न की तरह है. मनोराज्य भी एक स्वप्न ही है, सत्य नहीं है. हमें यह जगत उसी दिन असत्य प्रतीत होगा जिस दिन हम अज्ञान के अंधकार से जाग जायेंगे. रात का स्वप्न तो सुबह नींद खुलते ही समाप्त हो जाता है, पर जागती हुई आँखों का यह स्वप्न बहुत गहरा है. अज्ञान की निद्रा बहुत गहरी है. ज्ञान होते ही हम स्वयं को शरीर व मन से पृथक देखने लगते हैं. शरीर का प्रभाव मन पर व मन का प्रभाव तन पर पड़ता है पर आत्मा इससे प्रभावित नहीं होता. इसी क्षण वर्तमान के इसी क्षण में इसका अनुभव हो सकता है बस नींद से जागने भर की देर है. द्रष्टा होकर ही इस नींद से परे हम जा सकते हैं. मन को देखने की कला ही साक्षी है. साक्षी ही हम हैं. 

3 comments:

  1. द्रष्टा होकर ही इस नींद से परे हम जा सकते हैं. मन को देखने की कला ही साक्षी है. साक्षी ही हम हैं
    सटीक जीवन दर्शन जो गुण ले सो तर गया ,जो रह गया सो रह गया .

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