नवम्बर २००२
ईश्वर है यह मानना ही तो पर्याप्त नहीं, हमें उसका अनुभव करना है, पहले हमें स्वयं को जानना होगा तभी हम परमात्मा को जान सकते हैं. ‘मैं कौन हूँ’ की यात्रा ही हमें ईश्वर तक ले जाती है. वैराग्य और विवेक का उदय भी तभी होता है. जब हम अपने सच्चे स्वरूप को जान लेते हैं तभी हृदय में कृतज्ञता का भाव उत्पन्न होता है. और यही कृतज्ञता प्रेम में बदल जाती है. भक्ति ज्ञान के बिना नहीं टिक सकती और ज्ञान भक्ति के बिना अधूरा है. पूर्ण समर्पण तभी संभव है जब हृदय में पूर्ण ज्ञान हो. तब ईश्वर से प्रेम सहज हो जाता है, क्योंकि एक वही है जो प्रेम करने के योग्य है उसकी बनायी सृष्टि भी पूर्ण है, आनन्दमय है, उसकी लीला स्थली है. तब सहज ही सभी के प्रति प्रेम रहेगा, कोई उपेक्षा या अपेक्षा नहीं रहेगी. जीवन एक उपहार बन कर हर दिन सम्मुख आयेगा. सुख को पुकार पुकार हमें उसकी गुहार नहीं लगानी होगी. वह हमारा स्वभाव बन जायेगा, अखंड आनंद ! जो पीड़ा को भी खेल बना देगा. ईश्वर का सामीप्य हममें कितनी शक्ति भर देता है. उसके नाम का स्मरण ही हृदय में असीम शांति की लहर उठा देता है. वह सभी आत्माओं का आत्मा है.
इश्वर तो स्वयं में ही है..सुन्दर प्रस्तुति..
ReplyDeletekalamdaan.blogspotin..
जब हृदय में पूर्ण ज्ञान हो.
ReplyDeleteतब ईश्वर से प्रेम सहज हो जाता है,
ishwar ki mahima apar hai