Monday, February 20, 2012

बालवत् ही स्वर्ग का अधिकारी है


दिसंबर २००२ 
शिशु नैसर्गिक होता है. सहज होता है. समाज में रहकर धीरे-धीरे वह निज स्वभाव को भूलता जाता है. उसके मूल स्वरूप पर धूल जमने लगती है. साधना हमारे मूल स्वरूप को उजागर करती है. इस के द्वारा हम पुनः सहजावस्था को प्राप्त होते हैं. बड़े होने के क्रम में जो भी अवांछित हमने सीखा है उसे अनसीखा करते हैं. बच्चे की तरह वर्तमान में रहते हैं, वह एक पल रो रहा है अगले ही पल हँसने लगता है. हम शिशु के रूप में कई योग मुद्राएँ व आसन आदि कर चुके होते हैं, इन्हें पुनः करने पर आसानी से सीख जाते हैं. हमारे शरीर के विभिन्न अंगों में विभिन्न भाव व संवेदना जुड़ी है. मूलाधार आसक्ति, जड़ता व उत्साह का केन्द्र है. स्वाधिष्ठान सृजनात्मकता व काम वासना का केन्द्र है. नाभि के पास मणिपुर लोभ, ईर्ष्या, उदारता व संतोष का केन्द्र है. हृदय के निकट अनहत द्वेष, भय व प्रेम का केन्द्र है. कंठ पर विशुद्धि कृतज्ञता व दुःख का केन्द्र है. मस्तक पर आज्ञा, ज्ञान व क्रोध का केन्द्र है. सिर की चोटी पर सहस्रार आनंद का केन्द्र है. साधना से ये सारे केन्द्र जागृत होते हैं सकारात्मकता बढ़ती है.

2 comments:

  1. बहत उत्कृष्ट और सार्थक चिन्तन...

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  2. वाह! बहुत ही अच्छी जानकारी..
    धन्यवाद..
    kalamdaan.blogspot.in

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