Thursday, April 26, 2012

भक्ति का आलोक


फरवरी २००३ 
कृष्ण टेढ़े हैं, एक बार वह यदि हृदय में आ जाएँ तो निकलते नहीं ! वह हमारी आत्मा हैं और विवेक भी, प्रेम और ज्ञान का अद्भुत समन्वय ! भक्त जब एक बार अपना मन उन्हें सौंप देता है तो फिर वह मन कहीं और कैसे लग सकता है. सूरदास ने ठीक कहा है जहाज के पंछी की तरह तरह इधर-उधर घूम कर वहीं लौट आता है. उसकी कथाएँ भी अनुपम हैं. कितनी बार सुनो फिर नयी  लगती हैं. इन्हें सुनकर ही भक्त का मन उनकी ओर आकर्षित होता है. फिर साधना के बाद जब गहन शांति का अनुभव होता है तो विरह अश्रु बहते हैं, वह कृपा करते हैं और कभी-कभी उनकी झलक भी दिखने लगती है. फिर तो मन विवश हुआ सा उन्हें स्मरण करता है. अधरों पर नाम अपने आप आने लगता है. उसका मन जैसे संसार से कोई मोह नहीं रखना चाहता, कोई अपेक्षा नहीं, और जब अपेक्षा नहीं तो दुःख कैसा? एक तृप्ति या संतोष का भाव लिये उसका मन सदा एक रहस्यमय आनंद में डूबा रहता है, शायद इसी को भक्ति कहते हैं.



3 comments:

  1. टेढ़े ही रहो कृष्ण , कौन चाहता है कि निकलो

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  2. रश्मि प्रभा... has left a new comment on your post "भक्ति का आलोक":

    टेढ़े ही रहो कृष्ण , कौन चाहता है कि निकलो

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    Posted by रश्मि प्रभा... to डायरी के पन्नों से at April 27, 2012 7:42 AM

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  3. इसी भक्ति से प्रेरित गोपियों ने कृष्ण के मित्र उद्धव जी से कहा था -उधौ मन नाहीं दस बीस ,एकहू था सो गयो श्याम संग ,अब काहू से धीश .उत्प्रेरक विचार भाव सागर में डुबोती पोस्ट .कृपया यहाँ भी पधारें रक्त तांत्रिक गांधिक आकर्षण है यह ,मामूली नशा नहीं
    शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/2012/04/blog-post_2612.html
    मार -कुटौवल से होती है बच्चों के खानदानी अणुओं में भी टूट फूट
    Posted 26th April by veerubhai
    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/2012/04/blog-post_27.html

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