जीवन के दो ढंग हो सकते हैं. पहले में हम अपने सुख-दुख के लिए स्वयं
को जिम्मेदार समझते हैं और दूसरे में जगत को. संसार में रहते हुए जो भी कर्म हमें
करने हैं उनके पीछे की चेतना यदि पहले प्रकार की है तो वह कर्म को पूरी निष्ठा के
साथ करेगी, व्यक्तिगत हानि-लाभ से ऊपर उठकर जो भी आवश्यक है उसके लिए प्रयत्न
करेगी. जबकि दूसरे प्रकार की चेतना वाले व्यक्ति कर्म को भार भी समझ सकते हैं और
अपने अहंकार को बढ़ाने का साधन भी. कर्म चाहे कोई भी हो, सेवा, दान, धर्म अथवा
खेती, नौकरी और व्यापार, इसे करने वाले के मन की स्थिति कैसी है इस बात पर उस कर्म
का फल उसे मिलेगा. स्वयं को जाने बिना हम यह कभी नहीं जान पाएंगे कि किस कर्म का
कौन सा फल हमने अपने लिए नियत कर लिया है. इसीलिए योग साधना का इतना महत्व है.
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
24/03/2019 को......
[पांच लिंकों का आनंद] ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में......
सादर आमंत्रित है......
अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद
बहुत बहुत आभार !
Deleteबहुत बहुत आभार !
ReplyDeleteगूढ़ और सटीक कथन।
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
Deleteबिलकुल सही ,कर्मफल सिर्फ बहरी कर्मो से ही तय नहीं होता बल्कि आंतरिक मनःस्थिति का ज्यादा योगदान होता है ,बहुत सुंदर अनीता जी
ReplyDeleteस्वागत व आभार कामिनी जी !
Delete