अविद्या अथवा मोह हमें यथार्थ ज्ञान से वंचित रखता है. सुख
का प्रलोभन हमें रागी बनाता है और दुःख का भय द्वेषी. यदि हमारे कर्म राग, द्वेष
अथवा मोह से परिचालित होंगे तो कर्मों के बंधन से हमें कोई बचा नहीं सकता. इसके
विपरीत यदि हम सहज भाव से अपने नियत तथा कर्त्तव्य कर्म आदि करते हैं तो उसका कोई कर्माशय
नहीं बनता, जिसका फल हमें बाद में भोगना पड़े. राग और द्वेष ही वे दो असुर हैं
जिनके साथ एक साधक को अपने भीतर युद्ध लड़ना होता है. यदि कोई भी प्रवृत्ति राग
प्रेरित होगी तो उसका संस्कार और गहरा हो जायेगा और बाद में उससे मुक्त होने के
लिए उतना ही अधिक प्रयास करना पड़ेगा. इसी प्रकार यदि दुःख से बचने के लिए हम उद्यम
से द्वेष करते हैं तो प्रमाद का संस्कार गहरा होता जाता है. कृष्ण कहते हैं, राग और द्वेष
मनुष्य के बहुत बड़े शत्रु है, जो प्रत्येक इंद्रिय के
प्रत्येक विषय में स्थित रहते हैं, इनसे से ही काम-क्रोध की
उत्पत्ति होती है, जो समस्त विकारों के मूल हैं। जिसके
मन में कामना है, वह कभी सच्चे
अर्थ में सुखी नहीं हो सकता। कामना की पूर्ति में एक बार सुख की लहर-सी आती है, पर कामना ऐसी
अग्नि है, जो प्रत्येक अनुकूलता
को आहूति बनाकर अपना महत्व बढ़ाती रहती है। जितनी कामना की पूर्ति होती है, उतनी यह अधिक बढ़ती
है। कामना अभाव की स्थिति का अनुभव कराती है। जहां अभाव है, वहीं प्रतिकूलता
है और प्रतिकूलता ही दुख है। कामना कभी पूर्ण होती ही नहीं, इसलिए मनुष्य कभी
दुख से मुक्त हो ही नहीं सकता। इसलिए साधक को इन काम-क्रोध के मूल राग-द्वेष का
त्याग करना है.
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
गुरुवार 7 मार्च 2019 को प्रकाशनार्थ 1329 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
सधन्यवाद।
सारगर्भित विचार निय आलेख बहुत गहन र सरल उद्बोधन देता।
ReplyDeleteनमन।
जिसने राग द्वेष कामादिक जीते सब जग जीत लिया।
स्वागत व आभार !
Deleteबहुत सुंदर......सार्थक एवं विचारणीय विषय ,कर्म फल भुगतना ही पड़ता है,सादर स्नेह अनीता जी
ReplyDeleteस्वागत व आभार कामिनी जी !
Deleteमजाज़ ने कहा है -
ReplyDeleteबहुत मुश्किल है, दुनिया का संवरना,
तेरी ज़ुल्फ़ों का पेचो-ख़म नहीं है.
और जीवन में राग-द्वेष का सर्वथा त्याग भी ज़ुल्फ़ों के पेचो-ख़म निकालने जैसा सहल काम नहीं है.
मुश्किल काम तो है पर नामुमकिन नहीं, तभी तो कबीर दास ने कहा है, जो सिर काटे आपना..चले हमारे साथ
Deleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन नकलीपने का खेल : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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