Thursday, March 28, 2019

न द्वेष्टि न कांक्षति



भगवद् गीता में कृष्ण कहते हैं जो न किसी से द्वेष करता है और न ही किसी की आकांक्षा करता है, वह मुक्त ही है. मन में यदि किसी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति के प्रति द्वेष है तो मन शांत रह ही नहीं सकता, अशांत मन में सुख नहीं टिकता और सुख की राह पर चलकर ही तो आनंद के फूलों को पाया जा सकता है. परमात्मा प्रेम, शांति और आनंद ही तो है. यदि भीतर ये तीनों नहीं हैं तो उससे मुलाकात हो नहीं सकती, और यदि हम उससे ये तीनों मांगते हैं तो ऐसे हृदय में जहाँ द्वेष है, इन्हें रखेंगे कैसे. आग और पानी जैसे एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही शांति और दुःख एक साथ नहीं रहते. इसी प्रकार जिस हृदय में आकांक्षा बसती है, वहाँ भी बेचैनी है, फिर ईश्वर को पुकारने का धैर्य कहाँ बचता है. यदि उससे आकांक्षा पूर्ण करने की प्रार्थना की तो वह पूरी हो भी सकती है पर उससे मिलन नहीं होगा और कुछ समय बाद एक नई आकांक्षा जन्म ले लेगी. परमात्मा के निकट जाना हो तो मन को खाली करके जाना होगा, तभी वह स्वयं आकर उसमें रहेगा.

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