आत्मा की सबसे बड़ी मांग है स्वाधीनता. हर दुःख किसी न किसी
प्रकार की पराधीनता का द्योतक है. हम अपनी इच्छाओं के गुलाम होकर जीते हैं और किसी
न किसी प्रकार उन्हें पूर्ण करना चाहते हैं. यदि वे पूर्ण हो जाती हैं तो सुख उस
स्वाधीनता का होता है जो उस इच्छा से मुक्त होकर हमें मिलता है न कि उस वस्तु के
मिलने का जिसकी चाह पूरी हो गयी. जो इच्छा पूर्ण नहीं होती उसकी गुलामी हमें सहनी
पड़ती है. शास्त्रों में कहा गया है, वैराग्यवान को कौन सा सुख नहीं मिलता? क्योंकि
वह किसी की पराधीनता स्वीकार नहीं करता वह मुक्ति के सुख का अनुभव करता है. ध्यान में जो सहज आनंद साधक को मिलता है वह भी इसी क्षणिक
मुक्ति का परिणाम है. यदि कोई नियमित ध्यान साधना करता रहे तो धीरे-धीरे सभी
इच्छाएं सूखे पत्तों की तरह गिरने लगती हैं. पहले व्यर्थ हटता है फिर एक अवस्था
ऐसी आती है जब जो आवश्यक हो अपना आप ही उसे प्राप्त होने लगता है, किसी इच्छा की
आवश्यकता ही नहीं रहती.
बेहतरीन चिंतन ...........
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
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