सत्य समग्रता में मिलता है विश्लेषण में खो जाता है. हम एक फूल
को देखते हैं और उसकी सुन्दरता से मुग्ध हो जाते हैं, उस बीज का हमें स्मरण ही
नहीं आता जिसने इस फूल तक की यात्रा में क्या-क्या सहा है. बीज से फूल बनने को जो
एक क्षण में देख लेता है वही परमात्मा के जगत होने को भी स्वीकार कर सकता है. फूल
कोमल है, सुंदर है, सुगंध से भरा है, अपनी और खींचता है, लुभाता है, बीज में ऐसा
कुछ भी नहीं, कोई विशेषता नहीं कि हम उसे अपने घरों, मंदिरों या केशों में सजाएं. हाँ,
बीज के भीतर अंकुरित होने की शक्ति है जो समुचित आधार पाकर विकसित हो सकती है. ऐसे
ही जगत रंगीन है, अपने रूप, रंग, गंध, स्वाद और स्पर्श से आकर्षित करता है, परमात्मा
निर्विशेष है, उसे आप किसी को दिखा नहीं सकते, वह अदृश्य है. उससे ही सब कुछ हुआ
है. उसके साथ यदि कोई जुड़ जाता है तो सहज ही वह भी विकसित होने लगता है, उसका अहम
गल जाता है और आत्मा का जो बीज भीतर सुप्तावस्था में था, प्रस्फुटित होने लगता है.
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति उस्ताद जाकिर हुसैन और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार !
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