Tuesday, July 12, 2011

श्रद्धा

मन रूपी मार्ग पर दिन भर विचारों के यात्री आते-जाते रहते हैं. हमें उन पर प्रतिबंध लगाना है, यात्री कम होंगे तो मार्ग स्वच्छ रहेगा, और धीरे-धीरे उन यात्रियों का आना-जाना इतना कम हो जाये कि मन दर्पण की भांति चमकने लगे, और आत्मा झलकने लगे. सत्संग, सेवा और साधना इसमें हमारी सहायता करते हैं, सत्संग में सद्वचन मिलते हैं जिससे आत्मा व परमात्मा के प्रति श्रद्धा का भाव उपजता है, श्रद्धाहीन व्यक्ति रसहीन होता है, वह चतुर या ज्ञानी तो हो सकता है पर उस सहज सुख से वह वंचित रहता है जो ईश्वर के नाम स्मरण मात्र से मिलता है. 

2 comments:

  1. हाँ,सारी बात तो श्रद्धा की है,पर इसे कोई बाहर से खरीद नही सकता.ईश्वर का प्रसाद है उसकी कृपा से ही मिलता है.

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  2. श्रद्धाहीन व्यक्ति रसहीन होता है, वह चतुर या ज्ञानी तो हो सकता है पर उस सहज सुख से वह वंचित रहता है जो ईश्वर के नाम स्मरण मात्र से मिलता है.

    बहुत सुन्दर वचन हैं आपके.भगवद्गीता के १७वें अध्याय 'श्रृद्धा त्रय विभाग योग' में श्रृद्धा पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है.

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