दिसम्बर २००१
परदेश में कोई अपनी भाषा बोलने वाला मिल जाये तो जैसी खुशी होती है वैसी ही ध्यान में स्वयं को परमात्मा से मिलकर होती है... हमारी आत्मा उसी की भाषा बोलती है, मौन की भाषा ! जबकि मन संसार की भाषा बोलता है.. तभी दिल व दिमाग में द्वंद्व बना ही रहता है. यही द्वंद्व सारे तनाव का कारण है. ध्यान में चेतन मन शांत हो जाता है. मौन में संवाद होता है जिसकी भाषा अनूठी है और ध्यान से आने के बाद भी उसकी तरंगे मन तक पहुंच जाती हैं, कुछ पल को वह भी आत्मा के संग हो लेता है पर फिर दुनियादारी की धूल उस पर चढ़ जाती है, इसीलिए नियमित ध्यान वैसे ही जरूरी है जैसे नियमित स्नान.
शनिवार (१०-९-११) को आपकी कोई पोस्ट नयी-पुरानी हलचल पर है ...कृपया आमंत्रण स्वीकार करें ....aur apne vichar bhi den...
ReplyDeleteमौन का संवाद सर्वाधिक शशक्त होता है .
ReplyDeleteवाह. बहुत बढिया
ReplyDeleteआभार...आपसे सहमत हूँ.
ReplyDeleteभावप्रणव सुंदर आलेख, आपको शुभकामनाएं.
बिलकुल सही बात दोस्त जी :)
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