मार्च २००२
ईश्वर के प्रति या कहें शुभ के प्रति, सत्य के प्रति या ज्ञान के प्रति जिस हृदय में प्रेम नहीं है वह शुष्क मरुस्थल के समान है जहां झाड़-झ्न्काड़ के सिवाय कुछ नहीं उगता, जहां मीठे जल के स्रोत नहीं हैं. जहां तपती हुई बालू है जिसपर दो कदम चलना भी कठिन है. जो मरुथल स्वयं को भी तपाता है और अन्यों को भी. जिस हृदय में भगवद् प्रेम है वह अपने भीतर स्थित उस आनन्द के स्रोत से जुड जाता है जो है तो सब के भीतर पर अनछूया ही रह जाता है.
सत्य है।
ReplyDelete