मार्च २००१
ईश्वर को हम याद तो करते हैं पर अपने सुख की कामना के लिए, हम यह चाहते हैं कि ईश्वर हमारे जीवन को कष्टों से मुक्त रखे. हम ईश्वर को चाहते ही कहाँ हैं ? हम तो सुख-सुविधाओं के आ कांक्षी हैं फिर यदि वह हमसे दूर है तो इसमें क्या आश्चर्य है. लेकिन ईश्वर इतने दयालु हैं कि वे हमारा साथ नहीं छोड़ते, आत्मा के साथ वे हमारे हृदय में रहते हैं. आत्मा अपने को उनमें देखने के बजाय मन, बुद्धि व अहंकार में देखती है, और सुख –दुःख का अनुभव करती है. उसे स्वयं का ज्ञान हो जाने पर मन शांत हो जाता है, बुद्धि प्रज्ञा में बदल जाती है, अहंकार विगलित हो जाता है तब आत्मा अपने मूल स्वरूप यानि परमात्मा में स्थित हो जाती है. यह जगत भी तब उसी तरह स्वप्नवत् प्रतीत होता है जैसे स्वप्न का जगत है. जो आंख खुलते ही नष्ट हो जाता है. तब हम इस जगत में रहते हुए भी इसमें लिप्त नहीं होते. स्वयं को कर्ता व भोक्ता नहीं मानते, प्रकृति अपने गुणों के अनुसार कर्म करवाती है और परमात्मा ही परम भोक्ता है, यह ज्ञान हमें मुक्त करता है.
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