मई २००२
ईष्ट, गुरु या ईश्वर के प्रति प्रेम मन से शुरू होता है और आत्मा तक पहुंचता है. उनसे मिला प्रेम या ज्ञान ही इस प्रेम को उपजाता है. कृतज्ञता और आभार की भावना भी प्रेम का ही रूप है. धीरे-धीरे यह प्रेम इतना विकसित हो जाता है कि सारी सृष्टि के प्रति बह निकलता है. जैसे प्रकृति में सभी कुछ अपने आप हो रहा है, मन सहज ही झरता, पिघलता, द्रवित होता है. तब इस प्रेम को कोई पात्र नहीं चाहिए यह खुशबू की तरह चारों ओर स्वतः ही बिखर कर न्योछावर हो जाता है.
प्रेम सृष्टि की धुरी है।
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