Saturday, October 15, 2011

परम की खोज


मई २००२ 

हम सहज प्राप्य वस्तु को स्वयं ही दुर्लभ बनाकर इधर-उधर खोजते हैं, जैसे कि तब उसका महत्व बढ़ जायेगा, हम सहज प्राप्त ईश्वर को, आत्मा को भिन्न-भिन्न उपायों से खोजते फिरते हैं. शब्दों से और विचारों से मानसिक जुगाली का ही काम करते हैं, वह जो शब्दों से परे है, शब्दों से पकड़ में नहीं आ सकता.

1 comment:

  1. सत्य कहा है ... इस्वर को बस ढूंढते रहते हैं हम ... अपने अंदर नहीं देखते ...

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