जून २००२
उस अशब्द परमात्मा को शब्दों से नहीं जाना जा सकता. वह मौन है उसे मौन में ही ढूँढना होगा. मन जब मौन होगा तब वह धीरे से आकर अपनी उपस्थिति का अहसास कराएगा. हम जितना-जितना अपने आसपास की ध्वनियों के प्रति सजग होते जाते हैं, उतना-उतना ही हमें मौन का भी अहसास होता है. दो ध्वनियों के बीच का मौन... और वह बड़ा प्रभावशाली होता है, शब्दों से कहीं ज्यादा... उस मौन में हमें अपने होने का अहसास तीव्रता से होता है. ध्वनियाँ भी तब ज्यादा स्पष्ट हो जाती हैं. मन में उठने वाला अंधड़ शांत हो जाता है. शिराएँ शांत हो जाती हैं. एक शून्य की तरफ हम चल पड़ते हैं. ऐसा शून्य जो अर्थयुक्त है, अर्थहीन नहीं. जो शून्य होते हुए भी सारे अर्थों से परिपूर्ण है. जहाँ रस है, प्रेम है, सौंदर्य है, आनंद है, अमृत है और पूर्णता है. उसे हम कुछ भी नाम दे सकते हैं उसकी शरण में जाकर हमें कुछ भी करना नहीं है. अहं से मुक्त होकर उस अशब्द की ओर जाना ही परमात्मा को जानने की ओर पहला कदम है.
बहुत ही प्रभावी है यह मौन।
ReplyDeleteआपके विचार बहुत अच्छे लगते हैं,अनीता जी.
ReplyDeleteपढकर शान्ति का अनुभव होता है.
सुन्दर प्रस्तुति के लिय आभार.
गहन चिंतन की सार्थक अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteअहं से मुक्त होकर उस अशब्द की ओर जाना ही परमात्मा को जानने की ओर पहला कदम है.
ReplyDeleteसच है !
इसलिए सच्ची प्रार्थना सदा मौन ही होती है!
ReplyDeleteअहम से मुक्त होना ... अगर ये आसानी से हो जाए तो सच में प्रभू के पार जाया जा सकता है ... सत्य वचन ..
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