अप्रैल २००६
चंचल बालक की तरह मन संकल्प-विकल्प
करता है पर समझदार माँ की तरह बुद्धि उसे सम्भालती है, मन एक निरंकुश अश्व की तरह
छलांगे मरना चाहता है पर सवार की तरह बुद्धि उसे सही रास्ते पर लाकर नियमित चाल से
चलना सिखाती है. साधक अपने मन अथवा विचारों का ही तो प्रतिबिम्ब है. मन एक आईने की
तरह होता है जिसमें विचार झलकते हैं, यदि बुद्धि का साथ हो तो मन का दर्पण उजला
रहता है अथवा वह धुंधला जाता है और वह अपने आप को ही नहीं पहचान पाता, सब अस्पष्ट
हो जाता है. और ऐसा मन लिए वह नये संकल्प करता है और धीरे-धीरे एक ऐसे कुचक्र में
फँसता जाता है जिसमें से निकलना कठिन होता जाता है, विवेक को प्रश्रय दिए बिना
उद्धार नहीं होता.
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