दूसरों
के दोष देखने से हमारा स्वयं का दोष दृढ हो जाता है क्योंकि हम अन्यों में दोष तभी
देख सकते हैं जब वे पहले हम में हों. भक्ति करने की पहली शर्त है कि अंतकरण शुद्ध हो, मन निर्मल हो. यह जगत ईश्वर का बनाया
है, इसलिए कि हम अपने शरीर को रख सकें, शरीर के उपयोग के लिए यह बना है न कि उपभोग
के लिए. हम इसमें आनन्द ढूँढ़ रहे हैं, इन भौतिक वस्तुओं में आनंद नहीं है, बल्कि
इसके पीछे छिपे चैतन्य में आनन्द है. जैसे पारस यदि डिबिया में बंद हो तो वह लोहे
को सोने में नहीं बदल सकता. सबके भीतर चैतन्य छिपा है उसे उजागर करना है. यहाँ कोई
भी दोषी नहीं है, सभी एक नाटक का पात्र बने हुए अपना अपने रोल निभा रहे हैं. हम कई
जन्मों में यह ज्ञान सुन चुके हैं पर हृदय में धारण नहीं कर पाए. कभी बौद्धिक
व्यायाम के लिए, कभी यश के लिए, कभी दिखावे के लिए हम आज तक भक्ति करते आये हैं.
बहुत गहन और सुन्दर विचार
ReplyDeleteसुन्दर पोस्ट ईश्वर के प्रति अथाह प्रेम राधा- महाभाव ही भक्ति का शिखर है। राधा का प्रेम सिर्फ देने के लिए प्रतिदान नहीं माँगता है।
ReplyDeleteइमरान, वीरू भाई स्वागत व आभार !
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