अप्रैल २०००
अपने सुख के लिये किसी बाहरी वस्तु, व्यक्ति या स्थिति पर जो आश्रित नहीं है, वह स्वाधीन है. जिसे कर्म का बंधन नहीं है, अपने आप में जो पूर्ण है, वह स्वाधीन है. जिसकी आवश्यकताएं कम हैं, जो दीन नहीं है, ऐसा एक ही तो है, वह है परमेश्वर ! हमें उसी के आदर्शों पर चलना है. जीवन एक यात्रा है और ईश्वर उसकी मंजिल. रास्ता कहीं दिखाई नहीं देता, रास्ता भी हमें खुद ही बनाना है. नैतिक मूल्यों की स्थापना करके अपने जीवन में शुचिता और पवित्रता को अपनाकर, अपने आसपास फैले दुर्गुणों से स्वयं को बचाकर, सिर्फ स्वयं को ही नहीं, परिवार को, समाज को, फिर राष्ट्र को सबल बनाना है. यही हमारी धार्मिकता है, यही आध्यात्मिकता है. अध्यात्म मात्र मुक्ति की कामना नहीं है, स्वयं को सबल, शुद्ध व आदर्श बनाते-बनाते कहीं स्वार्थी न हो जाएँ इसका भी ध्यान रखना होगा. लेकिन पहली सीढ़ी तो यही है, हृदय जब शुद्ध होगा, विचार उच्च होंगे, प्रेम की भावना उदात्त होगी मन संकुचित नहीं होगा, सभी प्राणियों में एक उसी की सत्ता का अनुभव होगा, सबको अपनी नजरों से देखेंगे तो सारा जहाँ अपना हो जायेगा, जो ईश्वर का स्थूल रूप है. मन में उहापोह नहीं रहेगी, भावनाएँ एक ओर केंद्रित होंगी तो ध्यान भी सधेगा और तब ईश्वर के सूक्ष्म रूप यानि आत्मा का साक्षात्कार भी होगा.
बहुत ही अच्छा विचार है ....
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा, आपके चिंतन में गहराई है
ReplyDeletesabse aasan rasta mujhe to lagta hae ki sabse pahle eeshver kee kirpa prapt karein,krpa milne lagtee hae jab ham apne sab karam usko smarpit kerte jatein hain.
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