Tuesday, June 28, 2011

सहज सुख


जुलाई २००० 
र्म जब जीवन में बढ़ता है तो इच्छाओं पर लगाम लगती है, वे मर्यादित होती हैं. कोई सीख दे तो फौरन प्रतिकार करने की इच्छा होती है, इसी तरह कोई गलती करे तो टोकने की इच्छा होती है, जो अनावश्यक है. चुप रह जाने की इच्छा बोलने की इच्छा से ज्यादा श्रेष्ठ है. अंतःकरण को शुद्ध व शांत रखने के लिये अनावश्यक इच्छाओं का पोषण नहीं करना चाहिए. मन जब शांत रहेगा तो सामर्थ्य बढ़ता है, हम सारे कार्य थोड़े से प्रयास से ही कर पाते हैं, कार्य बोझ नहीं लगता, थके बिना सहज ही हम अपने कर्तव्य को निभाते हैं. कर्त्तव्य पालन यदि समुचित हो तो अंतर्मन में एक अनिर्वचनीय अनुभूति होती है, सुख की अनुभूति... वह सुख इच्छा पूर्तिवाला क्षणिक सुख नहीं है, वह निर्झर की तरह अंतर्मन की धरती से अपनेआप फूटता है, सभी कुछ भिगोता जाता है... फिर न कोई अपना रह जाता है न पराया, न  द्वेष न  राग, जीवन एक सहज सी क्रिया बन जाता है, कहीं कोई संशय बाकी  नहीं रहता.

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर ज्ञान दिया है आपने अनीता जी.
    बहुत बहुत आभार.

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  2. oor fir isee tarah sahaj smadhi faleebhoot ho jatee hae.

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