अप्रैल२०००
संत कहते हैं, मन को विकारों का ही तो बंधन है, हम जो मुक्ति की बात करते हैं, वह मुक्ति विकारों से ही तो चाहिए. यदि धर्म धारण किया है तो विकार धीरे-धीरे ही सही पर निकलने शुरू हो जाते हैं. यदि नहीं होते अथवा बढ़ते हैं तो ऐसा धर्म किस काम का ? केवल पाठ करने या धार्मिक चर्चा करने मात्र से हम धार्मिक नहीं हो जाते. राग-द्वेष सब विकारों की जड़ हैं। वीतरागी तथा वीतद्वेषी होने के लिये मन पर संस्कारों की गहरी लकीर नहीं पड़नी चाहिए. हृदय से मैत्री व करुणा की धारा बहने लगे तो शीघ्र ही मन निर्द्वन्द्व हो जाता है. ऐसा तब होता है जब मन ध्यानस्थ होने लगता है। मन की गहराई में मैत्री व करुणा का साम्राज्य है, पर मन उसके प्रवाह में रोड़े अटकाता है, जब मन ना रहे तभी अमन अर्थात शांति का अनुभव होता है।
हमारे सकाम कर्मों से वासनाएं अर्जित होती जाती हैं.ये वासनाएं ही आवरण रूप से 'कारण शरीर' का निर्माण कर देती हैं.जो प्रारब्ध के रूप में हमें वासना अनुरूप भोगने के लिए मजबूर करता है.जैसे जैसे आत्म ज्ञान अर्जित होता जाता है 'कारण शरीर' क्षय को प्राप्त होता जाता है.आत्म ज्ञान के द्वारा ही हम निष्काम कर्म करने की और भी अग्रसर हो जाते हैं,जिससे नवीन वासनाएं अर्जित नहीं होती.
ReplyDeleteवास्तव में विकारों से मुक्ति के लिए ज्ञान,कर्म व भक्ति योग की समग्र रूप से आवश्यकता है
सुन्दर ज्ञानपूर्ण प्रस्तुति के लिए आभार.
आपने सही कहा है विकारों से मुक्ति के लिये ज्ञान, कर्म व भक्ति तीनों की आवश्यकता है, आभार !
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