मई २०००
हम ईश्वर को प्रार्थना में माता-पिता तो कह देते हैं पर न तो पिता की आज्ञा में रहते हैं न माँ के वात्सल्य के पीछे छिपे उसके भाव का आदर करते हैं, फिर यदि मनमानी करने वाले तथा माँ के प्रेम को नकार कर जाने वाले पुत्र की तरह दुःख को प्राप्त हों तो इसमें आश्चर्य क्या ? कभी कभी लगता है कि ईश्वर पर विश्वास करना, उसके बताए मार्ग पर चलना, उसे सब कुछ सौंप कर खाली हो जाना कितना सहज है, लेकिन यह कार्य सचमुच तलवार की धार पर चलने जैसा कठिन है. क्योंकि जरा से हम सचेत नहीं रहे तो संसार उस हृदय पर अपना अधिकार जमा लेता है जहाँ एकनिष्ठ प्रभु का अधिकार होना चाहिये था.
यही तो सारी बात है,सारे दुःख ,तकलीफ़ हमे सचेत करने के लिये ही तो आते हैं.पर कोई एक ही सचेत होकर बुद्ध बन पाता है.
ReplyDeleteसुन्दर ,मनोहर ,अनुकरणीय .आभार .
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