Tuesday, June 21, 2011

मुक्ति


मई २०००  

मुक्ति कौन नहीं चाहता ? मुक्ति पुरानी आदतों से, व्यर्थ के खोखले विश्वासों तथा पूर्वाग्रहों से ! मुक्ति की कल्पना ही मन को पंख लगा देती है. मुक्त हृदय कितना शांत हो सकता है, कितना पवित्र और कितना सामर्थ्यवान. उसमें सब कुछ करने की शक्ति आ जाती है, बंधन मुक्त को दुःख कहाँ? लेकिन सारी सीमाएं, दायरे, बंधन और गुलामी की जंजीरें क्या हमारी खुद की ईजाद की हुई नहीं हैं? आदर्श से आदर्श स्थिति में भी हम अपने हृदय को नीचे गिरा लेते हैं. दुःख की कल्पनाएँ,  भविष्य के प्रति आशंका, साथ ही द्वेष, कटुता और इन सबसे बचे भी रहे तो दूसरों को सुधारने का लोभ... यही सब मन को नीचे गिराता है. हम अन्यों से तो अपेक्षाएँ करते हैं पर स्वयं उनकी अपेक्षाओं पर खरे उतरे या नहीं, इसका ध्यान नहीं रखते. इस सुंदर जगत की सुंदरता को नकार कर केवल कमियों पर नजर डालना कहाँ तक उचित है. संसार में रहते हुए भी यदि मन को मुक्त रखना तथा दुनियादारी निभाना आ जाये तो अंतर्मन से रस का स्रोत कभी सूखेगा नहीं.  



No comments:

Post a Comment