Monday, July 11, 2011

भूलभुलैया


अक्टूबर २००० 
हम दुनियावी बातों में इस कदर उलझे रहते हैं कि सर उठाकर यह देखने की फुरसत भी नहीं निकाल पाते कि इस उलझाव से परे भी कोई दुनिया है. हम इस बात से बेखबर ही रहते हैं कि कहीं कोई उलझन भी है. इसी उलझाव को जिंदगी मानकर जिए चले जाते हैं. जैसे पतंगों को दीये की लौ में जल जाना ही जीवन का परम उद्देश्य लगता है वैसे ही हमें भी इन रोजमर्रा के साधारण से दिखने वाले कामो में अपनी सारी ऊर्जा, (शारीरिक, मानसिक और आत्मिक) खपाते रहते हैं. इस ऊर्जा का कोई और उपयोग भी हो सकता है हम सोचने की जरूरत ही महसूस नहीं करते. ईश्वर से की गयी प्रार्थनाएं भी स्वार्थ से परिपूर्ण होती हैं, हम यही चाहते हैं कि इन झंझटों में वृद्धि हो कि हम इनमें और उलझे रहें, मदहोश रहें, ताकि बड़े प्रश्नों से बचे रहें, ऐसे प्रश्न जो मन को झकझोरते हैं, आत्मा को कटघरे में खड़ा करते हैं. हम इसी भूलभुलैया में मग्न रहना चाहते हैं.

2 comments:

  1. सही कहा आपने, हम अपनी ही दुनिया मे उलझे रहते हैं जबकि हमें थोड़ा वक्त बहरी दुनिया के लिए भी निकालना चाहिए

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  2. डाइरी का यह छोटा अंश बड़ी बात करता है. अत्यंत प्रभावी पोस्ट!
    हमज़बान की नयी पोस्ट मेन इटर बन गया शिवभक्त फुर्सत हो तो पढें

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