अक्तूबर २००२
जैसे दुःख अपने आप आता है, मांगना नहीं पड़ता, वैसे ही सुख भी स्वयंमेव ही आयेगा. हमें अनासक्त रहकर दोनों से ऊपर उठना है. सुख में आसक्ति भी दुःख का कारण है. यह जगत ईश्वर का क्रीडांगन ही तो है, हमें उसके खेल में सहयोगी होना है. हमारे सारे कार्य उसकी याद में हों. उसकी स्मृति वैसे ही बनी रहे जैसे अपना आप कभी नहीं भूलता. एक दिन वह स्वयं ही अपनी उपस्थिति का अहसास कराएगा. वह भी तो हमसे मिलने को आतुर है. जितनी निकटता की कामना हम करते हैं, वह उससे भी निकट है. स्वाध्याय हमारे मन को अनावृत करता है. हम तृप्ति का अनुभव तभी करते हैं जब भीतर संतोष जगता है, आनंद व ज्ञान का स्रोत वह परमात्मा ही हमें यह संतोष प्रदान करता है. हम उनके अंश हैं और उस आनंद व ज्ञान के भी भागी हैं, हमारा यह स्वाभाविक अधिकार है. हमने स्वयं ही उससे खुद को वंचित कर रखा है. जो हमारा है, वह तो हमें सहज प्राप्य है ही, बस दृष्टि उस ओर करने की देर है. वह हमारी प्रतीक्षा कर रहा है.
शांति गर्ग जी, आपका स्वागत व आभार!
ReplyDelete