Friday, January 20, 2012

दीनबन्धु दीनानाथ मेरी डोरी तेरे हाथ


प्रेम किये बिना कोई रह नहीं सकता तो क्यों न हम उस अनंत अविनाशी से ही प्रेम करें. विवेक जगाकर हम प्रेम के मूल तक पहुँच सकते हैं. सागर में झाग, लहर, भंवर, बुलबुले पानी के आधार पर टिके हैं, यदि लहर कहे मैं सागर को नहीं जानती तो कैसा विरोधाभास लगेगा, वैसे ही मन, बुद्धि व भावना सभी उसी आत्मा के आधार पर टिके हैं. मन जब उसमें डूब कर ऊपर आता है तो आत्मिक सुख का अनुभव करता है, इसी को धर्म मेघ समाधि कहते हैं जैसे मेघ हमें भिगो डालता है, वैसे ही आनंद हमें भिगो देता है. हम उस आनंद के खंड हैं, पर वह तो अखंड है तो हम सदा सर्वदा उससे संयुक्त ही हैं. वह तो सदा हमें निहार ही रहा है. हमारे प्रेम से भी कई गुना अधिक है उसका प्रेम. 

15 comments:

  1. बहुत सारगर्भित प्रस्तुति...आभार

    ReplyDelete
  2. प्रेम .... भक्ति ही तो है

    ReplyDelete
  3. आपकी किसी पोस्ट की चर्चा है नयी पुरानी हलचल पर कल शनिवार 21/1/2012 को। कृपया पधारें और अपने अनमोल विचार ज़रूर दें।

    ReplyDelete
  4. आनन्द...आनन्द... बस आनन्द आ गया आपकी अनुपम
    प्रस्तुति पढ़ कर.

    बहुत बहुत आभार,अनीता जी.

    ReplyDelete
  5. सच है...
    जैसे मीरा ने किया..
    सादर.

    ReplyDelete
  6. सारगर्भित प्रस्तुति

    ReplyDelete
  7. बेहतरीन भाव संयोजन ।

    ReplyDelete
  8. प्रेम किये बिना कोई रह नहीं सकता

    बहुत ही सुन्दर और सारगर्भित रचना हैं आंटी जी बहुत बहुत बधाई

    ReplyDelete
  9. sarthak prastuti :)

    ReplyDelete
  10. सुदर जीवन दर्शन के लिए बधाई

    ReplyDelete
  11. आनंद की अनुभूति होती है आपके संदेशों को पढ़कर।..आभार।

    ReplyDelete
  12. बहुत ही प्रशंसनीय प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

    ReplyDelete
  13. कैलाश जी, रश्मि जी, अनुपमा जी, कुश्वंश जी, संगीता जी, राकेश जी, देवेंद्र जी, रमाकांत जी, प्रेम जी, निधि जी, नीलकमल जी, सदा जी, विद्या जी आप सभी का स्वागत व आभार!

    ReplyDelete