प्रेम किये बिना कोई रह नहीं सकता तो क्यों न हम उस अनंत अविनाशी से ही प्रेम करें. विवेक जगाकर हम प्रेम के मूल तक पहुँच सकते हैं. सागर में झाग, लहर, भंवर, बुलबुले पानी के आधार पर टिके हैं, यदि लहर कहे मैं सागर को नहीं जानती तो कैसा विरोधाभास लगेगा, वैसे ही मन, बुद्धि व भावना सभी उसी आत्मा के आधार पर टिके हैं. मन जब उसमें डूब कर ऊपर आता है तो आत्मिक सुख का अनुभव करता है, इसी को धर्म मेघ समाधि कहते हैं जैसे मेघ हमें भिगो डालता है, वैसे ही आनंद हमें भिगो देता है. हम उस आनंद के खंड हैं, पर वह तो अखंड है तो हम सदा सर्वदा उससे संयुक्त ही हैं. वह तो सदा हमें निहार ही रहा है. हमारे प्रेम से भी कई गुना अधिक है उसका प्रेम.
बहुत सारगर्भित प्रस्तुति...आभार
ReplyDeleteप्रेम .... भक्ति ही तो है
ReplyDeleteआपकी किसी पोस्ट की चर्चा है नयी पुरानी हलचल पर कल शनिवार 21/1/2012 को। कृपया पधारें और अपने अनमोल विचार ज़रूर दें।
ReplyDeleteसार्थक पोस्ट
ReplyDeleteआनन्द...आनन्द... बस आनन्द आ गया आपकी अनुपम
ReplyDeleteप्रस्तुति पढ़ कर.
बहुत बहुत आभार,अनीता जी.
सच है...
ReplyDeleteजैसे मीरा ने किया..
सादर.
सारगर्भित प्रस्तुति
ReplyDeleteबेहतरीन भाव संयोजन ।
ReplyDeleteप्रेम किये बिना कोई रह नहीं सकता
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और सारगर्भित रचना हैं आंटी जी बहुत बहुत बधाई
सारयुक्त ..
ReplyDeletesarthak prastuti :)
ReplyDeleteसुदर जीवन दर्शन के लिए बधाई
ReplyDeleteआनंद की अनुभूति होती है आपके संदेशों को पढ़कर।..आभार।
ReplyDeleteबहुत ही प्रशंसनीय प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteकैलाश जी, रश्मि जी, अनुपमा जी, कुश्वंश जी, संगीता जी, राकेश जी, देवेंद्र जी, रमाकांत जी, प्रेम जी, निधि जी, नीलकमल जी, सदा जी, विद्या जी आप सभी का स्वागत व आभार!
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