अक्तूबर २००२
यह जगत प्रतिपल बदल रहा है. मनुष्य किसी भी स्थिति में क्यों न हो हँसी और खुशी उसका साथ नहीं छोड़ती जैसे दुःख उसका चिर साथी है. दोनों आते-जाते रहेंगे भिन्न भिन्न रूपों में, पर एक तो वही है अपना आप, जिसे न दुःख व्याप्ता है न सुख, जो प्रेम है, आनंद है, और मधुमय है, रसमय है. जो जीवन को अर्थ देता है, एक चुनौती देता है, लक्ष्य देता है. जो बाहें फैलाये खड़ा है हमें हर पल पुकारता है. जो अपना दिव्य स्वरूप धारे हमें अपनी ओर आकर्षित करता है उसका जैसा बनने की हमें प्रेरणा देता है. वह हमें खुद सा बनाना चाहता है बल्कि उसने हमने खुद सा बनाया ही था, निष्पाप, निर्दोष..पर हम ही उससे दूर चले गये और जगत नाम की उस वस्तु को थामने लगे जो हाथ से मुट्ठी से रेत की तरह फिसलती जाती हैं, हमारा तन जो दिन रात जरा की ओर बढ़ रहा है, कोई न कोई व्याधि इसे सताती ही है, हमारा मन जो सदा किसी न किसी ताप में जलता ही रहता है. और वह शीतल फुहार सा, अलमस्त झरने सा, प्रेम का सोता हमारे भीतर ही कहीं बह रहा है उससे हम अनजान ही बने रहते हैं.
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