अक्तूबर २००२
साधक की एक अनुभूति ऐसी भी होती है जब वह कह उठता है...“पायी संगत जो संतन की पायी पूंजी अपने मन की” सदगुरु ने हमें स्वयं से मिला दिया है और अब हमें स्वयं से प्रेम हो गया है. पहले स्वयं से आँखें मिलाते से डरते थे और दूसरों से भी, अब हर जगह वही दिखता है तो डर किसे और किसका? हमने स्वयं ही अपने लिये बाधाएं खड़ी की हुई थीं और ज्ञान से इन बाधाओं का अंत होता नजर आता है. तन, मन व बुद्धि को स्वयं से अलग देखने की कला ने हमारे सच्चे स्वरूप को उजागर कर दिया है. बुद्धि को पृथक करते ही वह आग्रह तज देती है, मन को तज देने से वह खाली हो जाता है और जैसे खाली घट में जल भर जाता है, खाली मन उस परम की शांति से स्वतः ही भर जाता है. तन को पृथक देखने पर उसकी पीड़ा छूती नहीं उस तरह जैसे पहले छूती थी. कितना अद्भुत है यह ज्ञान.
बहुत सारगर्भित प्रस्तुति..आभार
ReplyDeleteज्ञान से इन बाधाओं का अंत
ReplyDeletesunder sarthak kathan anukarniy