Wednesday, May 16, 2012

सुख-दुःख के जो पार हुआ है


मार्च २००३ 
सुख से दुख दबता है, आनंद से दुःख मिटता है. आनंद के आगे सुख-दुःख नहीं टिकते. सुख की चाह में हम स्वयं को दुखी करते हैं, हर सुख अपने पीछे एक दुःख छिपाए है जो उस वक्त नहीं दिखता. आनंद ज्ञान से उत्पन्न होता है. जहाँ ज्ञान है वहीं उपरति है, हर काम में सहज प्रसन्नता है, कार्य मात्र कार्य के लिये है न कि फल के लिये. तब कार्य ऐसे ही होता है जैसे नदी बहती है, सूरज उगता है, फूल खिलता है. तब सुख मन में चंचलता को उत्पन्न नहीं करता न ही अभिमान को. दुःख मन को सिकोड़ता नहीं, अज्ञान ही हमें दबोचता है. ज्ञानी को सत-असत का विवेक होता है, वह परिवर्तनशील जगत को नाटक की भांति जानता और देखता है. वह उसके पीछे न बदलने वाले ब्रह्म को ही सत्य जानता है. जीवन में जो बीत गया वह स्वप्न हो गया. जो नजर आ रहा है वह भी स्व्प्न हो जायेगा तो व्यर्थ की आपाधापी क्यों? हर रात हम नींद में जाते हैं एक तरह से मृतवत् ही होते हैं, नयी सुबह हमारा नया जन्म होता है. तो क्यों न जीवन को ऐसे जियें जिसमें कोई पकड़ न हो. हर पल सब कुछ छोड़ कर जाने को तैयार. 

2 comments:

  1. ज्ञानी को सत-असत का विवेक होता है, वह परिवर्तनशील जगत को नाटक की भांति जानता और देखता है.

    सुबह हमारा नया जन्म होता है.
    MANAW JAGAT KA KALYAN KARI PATH BATATA RAAH.

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  2. रमाकांत जी, स्वागत व आभार !

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