जुलाई २००४
कभी-कभी बादल बरसते हैं तो बरसते
ही चले जाते हैं, न जाने कितने हजार युगों से बादल बरस रहे हैं, पुनः पुनः जल,
धरा से गगन में उठता है, गिरता है. पुनः पुनः वृक्ष पनपते हैं, नष्ट होते हैं. हम
भी न जाने इस धरा पर कितनी बार आ चुके हैं. एक बार और आए हैं, और स्वयं का परिचय
हमें मिला है, पिछले जन्म में भी हो सकता है किसी ने हमें यह मार्ग बताया हो, पर
हमने यह न चुना हो. इस जन्म में हमने परमात्मा को अपने रहबर माना है. वह हमारे
हृदय की ग्रंथियों को काट रहे हैं. कोई राग-द्वेष नहीं है, चाह नहीं है, उसके प्रेम
ने अंतर को ऐसा भर दिया है कि और कुछ भी भरने की जगह नहीं है. हम आत्मनिष्ठ होकर
जीना सीख गए हैं. आत्मा पूर्णकाम है, वह आनन्दपूर्ण है, शांतिमयी और सुखमयी है, वह है,
वह सहज है, झरने की तरह, पंछी की तरह, फूल की तरह और नन्हे बच्चे की तरह, उसे कोई
अपेक्षा नहीं, उसके हृदय में उपेक्षा भी नहीं, वह जैसी भी परिस्थिति आये सहज रूप
से व्यवहार करती है, वह प्रेमिल है, वह सूर्य की भांति सारे शरीर को प्रकाशित करती
है. वह हमें चेतना से भर देती है. अपार ऊर्जा का भंडार है उसके पास. उससे मिलकर ही
दर्शन होता है, अनंत का दर्शन.
उससे मिलकर ही दर्शन अनंत होता है,आभार अनीता जी,,,,
ReplyDeleteRecent Post : अमन के लिए.
बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteपधारें "आँसुओं के मोती"
नवरात्रों की बहुत बहुत शुभकामनाये
ReplyDeleteआपके ब्लाग पर बहुत दिनों के बाद आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ
बहुत खूब बेह्तरीन !शुभकामनायें
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
मेरी मांग
सुन्दर!
ReplyDeletelatest post वासन्ती दुर्गा पूजा
LATEST POSTसपना और तुम
बहुत बढ़िया प्रस्तुति अनीता जी आप इतना गहरा कैसे सोच लेती हैं
ReplyDeleteराजेश जी, यह सब सद्गुरु की कृपा है...उनकी ध्यान विधि से भीतर स्वयं ही भाव उमड़ते हैं..जैसे कोई लिखवा रहा हो.
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