जुलाई २००४
ज्ञान और दुःख एक-दूसरे के
विरोधी हैं, जहाँ ज्ञान है वहाँ दुःख नहीं टिक सकता और जहाँ दुःख है वहाँ भीतर का
अज्ञान ही प्रकट हो रहा है. वास्तविक ज्ञान वही है जो सदा के लिए समस्त दुखों से
छुटकारा दिला दे. संत उसी ज्ञान को देना चाहते हैं, वह जगत में रहते हुए भी उससे
ऊपर हैं, सुखद-दुःखद परिस्थितियाँ तो आती-जाती रहेंगी, पर दुखी होना अथवा न होना
हमारी मानसिक परिपक्वता पर निर्भर करता है. सुख की दौड़ खत्म होते ही दुःख अपने आप
मिटता जायेगा. जीवन जैसा मिला है उसे कृतज्ञतापूर्वक स्वीकारना सीखना होगा. हम
जीवन को अपनी रूचि के अनुसार चलाना चाहते हैं, तभी दुःख के भागी होते हैं. हर क्षण
को वैसा ही स्वीकार करने से मन में द्वंद्व नहीं रहता, मन खाली हो जाता है, खाली
मन में ही ईश्वर की महिमा प्रकट होती है.
अनुपम भाव संयोजन ... बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteजीवन जैसा है स्वीकृत होना चाहिए .
ReplyDeleteसदा जी, व वीरू भाई स्वागत व आभार!
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