मन की व्यग्रता इस बात की
द्योतक है कि हमें अभी जगत में रहना नहीं आया, जगत में रहना जब किसी को आ जाता है
तो वह परमात्मा के द्वार पर रहने लायक भी हो जाता है. मान-अपमान, सुख-दुःख आदि
द्वन्द्वों रूपी चक्की के पाटों में वही पिसने से बच जाता है. व्यर्थ की बातों में
फंसकर जब हम स्वयं को उलझा लेते हैं, कल्पनाओं के जाल में फंसकर स्वयं को सुखी-दुखी
करते हैं, तब हम यह भूल जाते हैं कि कल्पना का यह महल कब तक रहेगा, इसे तो गिरना
ही होगा. प्रामाणिकता यदि हमारे आचरण में नही है तो सुख भी प्रामाणिक नहीं हो
सकता. हमें तो उस शांति को पाना है जो हमारी निज की सम्पत्ति है, उस प्रेम को, जो
हमारा स्वरूप है. जगत में जो कुछ भी घट रहा है वह अनंत करवा रहा है, वही हमारा शत्रु बन कर आता है,
वही मित्र बनकर, वही हमारे भीतर है, हमें अपने मूल स्रोत तक पहुँचाने के लिए वह
निरंतर हम पर दृष्टि रखे है. हम सुरक्षित हाथों में हैं.
बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteहमें तो उस शांति को पाना है जो हमारी निज की सम्पत्ति है, उस प्रेम को, जो हमारा स्वरूप है...
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बेहतरीन....अनहद भाव ......
सदा जी, व राहुल जी स्वागत व आभार!
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