जुलाई २००४
हमसे सुबह से शाम तक न जाने
कितने अपराध होते रहते हैं, वाणी का अपराध उनमें सबसे ज्यादा होता है, हम स्वभाव
वश कटु भाषा का प्रयोग करते हैं, अप्रिय बात भी बोल देते हैं, असत्य तथा बढा-चढ़ा
कर भी बोलते हैं. जो जैसा है वैसा का वैसा प्रकट नहीं करते. व्यर्थ ही हम जोर से
बोलते हैं, बिना आवश्यकता के बोलते हैं, और अपनी बहुमूल्य ऊर्जा का अपव्यय होने
देते हैं. यह सभी तब होता है जब हम खुद की याद भुला देते हैं, हमें यह बोध नहीं
रहता कि वास्तव में हम पावन ऊर्जा हैं, जिसकी एक-एक बूंद अनमोल है, अपने शुद्ध
स्वरूप में होने पर कोई कभी भी असत्य का आश्रय नहीं ले सकता. मन के स्तर पर होने
से हम उसी के धर्म का शिकार हो जाते हैं. मन चंचल है, वह हमें भी अस्थिर कर देता
है, संसार को जिस रूप में दिखाता है, बाध्य होकर हम उसी रूप में देखते हैं. साधना
में हम इसी मन को यहाँ-वहाँ से, इधर-उधर से, पचासों जगहों से जहाँ-जहाँ यह अटका है,
वहाँ-वहाँ से लाकर अपने भीतर लाना सिखाते हैं, जहाँ परमात्मा का वास है, ऐसा मन
सौम्यता धारण करता है, ईश्वरीय प्रसाद पाने लगता है. सूक्ष्म को पाकर वह स्थूल से
मोह नहीं कर सकता. सूक्ष्म को पाने की
क्षमता यदि एक बार मन विकसित कर ले तो वह एकाकी नहीं रह जाता, वह तत्व सदा उसके
साथ रहता है. मन आत्मारामी हो जाता है. मन की धारा संसार से उलट कर राधा हो जाती है, कृष्ण का आश्रय जिसे सदा ही
प्राप्त है.
अपने आत्म स्वरूप ,स्व :मान में स्थित होने के लिए इसीलिए मन और मुख दोनों का मून ज़रूरी है हम तो यह भी नहीं जानते हम एक आत्मा हैं शरीर से न्यारे और प्यारे .शान्ति आत्मा का स्वभाव है .आनंद ,ज्ञान ,प्रेम सभी उसके गुण हैं वह परमात्मा का वंश है .
ReplyDeleteमुख की बड़बड़ हमें स्व :मान से गिरा देती है .
बढ़िया पोस्ट बढ़िया विचार .
स्वागत व आभार !
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