जुलाई २००४
जो कर्म वर्तमान में हम करते
हैं, वे क्रियमाण कहलाते हैं, जो कर्म बीज रूप में हमारे सूक्ष्म शरीर के साथ रहते
हैं, वे संचित कर्म कहलाते हैं और जब वे परिपक्व हो जाते हैं व फल देने का कार्य
करते हैं, तब उन्हें प्रारब्ध कर्म कहते हैं. साधना के द्वारा जब कोई साधक संचित
कर्मों के बीजों को भून देता है तब उनमें फल नहीं लगते, और साधना के रूप में नए शुभ
क्रियमाण कर्म करता है, तो नए बीज शुभ ही बो रहा है जो वक्त आने पर शुभ फल ही
देगें. भक्त अपने सभी कर्मों को समर्पण करके मुक्त हो जाता है. ज्ञानी जानता है कि
भीतर आत्मा व परमात्मा दो सखाओं की भांति विद्यमान हैं, परमात्मा द्रष्टा है,
आत्मा भोक्ता है, यदि आत्मा भी द्रष्टा भाव में आ जाये, तो जगत एक मनोहारी सुखद
कर्मक्षेत्र बन जायेगा.
कर्मगति अति गहन है,,,,
ReplyDeleteRECENT POST : प्यार में दर्द है,
धीरेन्द्र जी, स्वागत व आभार!
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