हमारे जीवन का लक्ष्य सुख ही तो
है, सुखी व्यक्ति अपने चारों और सुख ही बांटता है, संतुष्ट व्यक्ति अपने इर्द-गिर्द
संतोष का भाव फैलाता है और शांत व्यक्ति शांति. ये सभी हमें अंतर्मुखी होने से
प्राप्त होते हैं. ध्यानस्थ व्यक्ति कामनाओं की आहूति देता है, कामनाएं जो अग्नि
की तरह हैं, जिनकी पूर्ति होने पर वे और बढ़ती हैं, उन्हें त्याग कर ही शांति का
अनुभव होता है. भीतर भी ऊर्जा का प्रवाह हो रहा है, सब कुछ गतिशील है, लेकिन इन
सभी गतियों के परे ऐसा कुछ है जो अचल है, जो सदा है. हमारी श्वास के सहारे हम भीतर
की यात्रा पर उतरते हैं, प्रकाश का एक बिंदु या धीमी सी गुंजन हमारा मार्ग प्रशस्त
करती है, हम एक अनोखे आनंद का अनुभव करते हैं, एक ऐसा आनंद जो बाहर की दुनिया में
भी हमें संतुलित करता है. भीतर का बल बाहर भी कम आता है. हम निरपेक्ष होकर जीना
सीखते हैं, हमारी स्वयं की मांग शेष नहीं रहती. हम देना चाहते हैं, क्योंकि तब जगत
फीका लगता है, वह उस सुख का पासंग भी नहीं दे सकता, जगत तो निरंतर बदलने वाला है, वह
नश्वर है, जबकि हम सदा थे, और सदा रहेंगे.
क्षमायाचना सहित आपसे पूरी-पूरी सहमति नहीं.बहिर्मुखी व्यक्ति संतुष्ट,शांत और खुशहाल नहीं होता ऐसा हमेशा जरुरी नहीं
ReplyDeleteराजेश जी, आपका स्वागत है, आपकी बात सही है, बहिर्मुखी हो या अंतर्मुखी दोनों सुखी, संतुष्ट व शांत हो सकते हैं, अंतर इतना भर है कि जिस शाश्वत शांति की बात धर्म सिखाता है, वह ध्यान से ही सधती है,ध्यान के लिए भीतर जाना ही होगा.
ReplyDelete