संत कहते हैं कि हम जब तक
पांच स्कन्धों को अपना मानते हैं तब तक मुक्त नहीं हो सकते, सर्व प्रथम यदि हम देह
को ‘मेरा’ अथवा ‘मैं’ मानते हैं तो कोई न कोई कष्ट उसे होगा और हम विचलित हो
जायेंगे. दूसरा है मन, मन के चार भाग हैं, विज्ञान, संज्ञा, अनुभव और प्रतिक्रिया.
किसी घटना को जब हम देखते हैं तो वह विज्ञान हुआ उसे पहचानना संज्ञा, वह सुखद है
अथवा दुखद इसे जानना अनुभव है, तथा अनुकूल या प्रतिकूल संवेदना जगाना ही प्रतिक्रिया
करना हुआ. मन के ये चारों भाग अपना-अपना काम करते हैं, यह उनका स्वभाव है, हमें इस
स्वभाव को पलटना है, उसके साथ अपने एकता नहीं दिखानी, अन्यथा ऊपर-ऊपर से लगेगा कि
हम सुख-दुःख से ऊपर हो गए, भीतर भेदभाव अब भी है. द्रष्टा होकर जगत को प्रतिक्षण बदलने
वाला जानकर हम निरपेक्ष रह सकते हैं. जब भीतर तटस्थ रहना आ जायेगा तब हम बाहर भी
समता को धारण कर सकेंगे.
ज्ञान देती बहुत सुंदर पोस्ट ,,,
ReplyDeleteRECENT POST : प्यार में दर्द है,
धीरेन्द्र जी, स्वागत !
Deleteकिसी घटना विशेष पर प्रतिक्रिया की हमारी आत्मा पर छाप पड़ जाती है .उस कर्म (प्रतिक्रिया )की छाप पड़ना ही स्वभाव संस्कार बन जाता है .अपने आप को ज्योतिबिंदु मान साक्षी भाव से घटनाओं को लेने देखना ही देह अभिमान से मुक्त हो देही अभिमानी बनना है कर्ता भाव से परे जाना है बढ़िया पोस्ट .
ReplyDeleteनिमित्त बन ट्रस्टी भाव से कर्म करना है .
ReplyDeleteवीरू भाई, सही कहा है आपने...
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