जुलाई २००४
हमारे भीतर जो चेतना है, वह परम
है, पवित्रतम है, जो हमारे माध्यम से काम कर रही है. यह देह, मन, बुद्धि सब उसी के
उपकरण हैं, वह इनके माध्यम से स्वयं को प्रकट कर रही है. जब “मैं हूँ” यह भाव नष्ट
हो कर ‘वह है’, ‘तुम हो’ यह भाव प्रमुख होता है तब धीरे-धीरे सब कुछ एक समष्टि में
बदल जाता है. सभी कुछ उस एक का ही प्रतिबिम्ब है यह भाव दृढ़ हो जाता है. जब ऐसा हो
जाये तब अपना कुछ नहीं रह जाता और अपना सभी कुछ है. तब कुछ भी नहीं करना और सभी
कुछ करना है, सारे कृत्य अपने ही लगते हैं और फिर भी कर्ता भाव नहीं रहता, सभी
अपने हैं पर ममता भाव नहीं, मैं ही वह हूँ पर अहंता भाव नहीं....और ऐसा तभी होता
है जब अनवरत बरसती कृपा के प्रति कोई सचेत होता है.
खूब सूरत विचार -मन मना भव ,देही अभिमानी बन .श्री मत पर चल .श्री मत बोले तो शिव (निर्गुण परमात्मा द्वारा दिखाया रास्ता ,एहंकार आत्मा की ताकत को खा जाता है बुद्धि को नष्ट करता है रावण हमारे अन्दर है बाहर नहीं ,बड़ा हो रहा है अन्दर अन्दर ,इसीलिए मन मना भव ).मुझे ही याद कर मन मत पर नहीं श्री मत पर चल .ॐ शान्ति .
ReplyDeleteबहुत प्रभावी सुंदर विचारों की प्रस्तुति !!!
ReplyDeleterecent post : भूल जाते है लोग,
वीरू भाई, व धीरेन्द्र जी, स्वागत व आभार!
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