जून २००३
द्वन्द्वों से भरा है यह जगत, कभी सुख कभी दुःख, कभी शांति कभी
अशांति, कभी शीत कभी ग्रीष्म रात और दिन की तरह ये आते जाते रहते हैं लेकिन जो
गुणातीत हो जाता है उसे ये द्वंद्व नहीं बांधते, उसे प्रभावित करते ही नहीं. जब
दोनों ही अस्थायी हैं तो किसी को भी स्नेह या द्वेष क्यों दे, स्नेह का पात्र तो
वही हो सकता है जो चिर स्थायी हो और वह हमारे भीतर है. द्वन्द्वों के साक्षी बने
रहें तो वे हम पर हावी नहीं होते. वीतरागी होना है तो न राग रहे न द्वेष. जो दिखाई
दे रहा है उसके पीछे की शाश्वत सत्ता हर जगह है उसके प्रति समर्पण के बिना
प्रार्थना अधूरी है. जाने-अनजाने हमने जो भी किया है वह संस्कार रूप में हमारे
भीतर स्थित है नहीं तो हमें सदा मन की एक सी स्थिति मिली रहती. पर ऐसा नहीं है कि
हम इसे काट नहीं सकते, ज्ञान की तलवार से भक्ति की फुहार से हम पूर्व कर्मों को
काट सकते हैं पर ऐसी भक्ति, मुक्ति के बाद ही प्रकट होती है, मुक्ति राग-द्वेष से,
समता भाव साधना होगा इसके लिये और वही द्वंद्वों से परे होना है.
सच कहा आपने....मन द्वन्द ही पैदा करता है फिर उसी में घुमते रह जाते हैं हम।
ReplyDeleteज्ञान की तलवार से भक्ति की फुहार से हम पूर्व कर्मों को काट सकते हैं पर ऐसी भक्ति, मुक्ति के बाद ही प्रकट होती है, मुक्ति राग-द्वेष से, समता भाव साधना होगा इसके लिये और वही द्वंद्वों से परे होना है.
ReplyDeleteजीवन के सत्य को उजागर करती पोस्ट
इमरान व रमाकांत जी, आप का स्वागत, अभिनन्दन व आभार !
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