जून २००३
सदगुरु हमारे मन में ज्योति जलाते हैं, वह अपने अंतर का आनंद हमें भी बाँटना चाहते
हैं. वह हमारे भीतर सोयी श्रद्धा को जगाते हैं. उनका प्रेम अनंत है, हम अपने मन की
डोर यदि उनके हाथों में सौंप दें तो उन्नति स्वाभाविक है, वरना ऊर्जा व्यर्थ ही इधर-उधर
के कार्यों में लगती रहेगी. वह हमें मन की कल्पनाओं को महत्व न देकर स्वयं में
स्थित रहने का संदेश देते हैं. सुख-दुःख के विष को पचाना सिखाते हैं. दुखाकार वृत्ति
के साथ जुड़ना अथवा न जुड़ना हमारे अपने हाथ में है, वह समता में रहना सिखाते हैं. परमात्मा
के नाते सब उसका है, जगत के नाते भी सब उसी का है. मुक्तात्मा बन कर जीना ही
वास्तव में जीना है. मन के दोष मिटाते मिटाते समाधि की अवस्था तक पहुंचना है पर वहाँ भी रुकना नहीं
है बल्कि सहजता के योग को साधना है. अपनी महिमा को जानकर अपने वास्तविक स्वरूप को पाने के लिये ही हमारा सभी प्रयास चल रहा है.
अपनी अल्प बुद्धि से उसे जान नहीं सकते बुद्धि से पार जाकर ही वहाँ की खबर मिलती
है.
बहुत सुंदर और सार्थक भी ...
ReplyDeleteआभार ...!!
मुक्तात्मा बन कर जीना ही वास्तव में जीना है.
ReplyDelete........बहुत सच कहा है...बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति...आभार
सद्गुरू ही तो जीवन की नैया पार लगाता है ..
ReplyDeleteआज के आर्थिक युग में नि:स्वार्थ गुरूओं की कुछ कमी है ..
समग्र गत्यात्मक ज्योतिष
संगीता जी, आज भी ऐसे सदगुरु हैं, हमें ही सदशिष्य बनना है. आपका ब्लॉग नहीं खुला
Deleteसदगुरु हमारे मन में ज्योति जलाते हैं,
ReplyDelete.बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति.
अनुपमाजी, कैलाश जी व रमाकांत जी, आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDeleteबुद्धि के पार जाना है....सुन्दर आलेख।
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