मई २००३
साधक का लक्ष्य है पल-पल सचेत रहना, क्योंकि सचेत मन स्वयं को स्पष्ट देखता है,
हमें हमारी बड़ी कमियां भी जब छोटी सी भूल मालूम होती हैं तो मन सोया हुआ है. वह
पीड़ा जो कठोर वाणी के बाद स्वयं को ही दंश देती है परमेश्वर की कृपा ही है, यह
असंतोष की भावना जो साधक को कचोटती है परम सत्य को पाने के लिए तत्पर होने का
संदेश ही देती है. साधना का पथ कभी-कभी सांप-सीढी के खेल की तरह प्रतीत होता है,
मंजिल तक पहुंचने का आनंद मिलने ही वाला होता है कि हम गहरे गड्ढ में धकेल दिए
जाते हैं. किसी संत से सुना कि जब शुभकर्मों का उदय होता है तो ईश्वर का अनुग्रह
होता है और उसकी निकटता मिलती है जब अशुभ कर्मों का उदय होता है तो उसकी कृपा होती
है अर्थात उसका वियोग होता है. जैसे रात और दिन का क्रम चलता है वैसे ही साधना में
जब तक पूर्व जन्मों के बंधन नहीं कटते सुख-दुःख लगे ही रहेंगे. पर नए कर्मों के
बंधन न बनें, नयी गांठ न पड़े इसके लिये तो सजग रहना होगा. पूरी तरह शरणागत हो जाएँ
तो पुराने कर्मों के बंधन भी धीरे-धीरे कटने लगते हैं.
वह पीड़ा जो कठोर वाणी के बाद स्वयं को ही दंश देती है परमेश्वर की कृपा ही है, यह असंतोष की भावना जो साधक को कचोटती है परम सत्य को पाने के लिए तत्पर होने का संदेश ही देती है. साधना का पथ कभी-कभी सांप-सीढी के खेल की तरह प्रतीत होता है,
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर आलेख.....आभार।
बहुत ही अव्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteसत्य वचन ... गहरी बातें ...
ReplyDeleteसाधक का लक्ष्य है पल-पल सचेत रहना, क्योंकि सचेत मन स्वयं को स्पष्ट देखता है,
ReplyDeleteकर्म और ज्ञान का अद्भुत संजोग
आभार!
ReplyDeleteसुंदर विचार।
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