जून २००३
मन जब वर्तमान में नहीं होता तो चिंता आकर घेर लेती है. वर्तमान में अपार शक्ति
है, इस क्षण में यदि मन टिक जाये तो मन स्थिर ही नहीं रहता बल्कि निर्दोष हो जाता
है. सहज शांति का अनुभव होता है. ‘लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर’
संभवतः जब हम विनम्र होते हैं तभी वर्तमान में टिक पाते हैं, जैसे ही अहंकार आ
जाता है तो मन भूत या भविष्य की उलझनों में फँस जाता है. भगवद् अनुभव से हम वंचित
रह जाते हैं. हम ईश्वर की कृपा के लिये लालायित रहते हैं लेकिन एक बार जब कृपा का
अनुभव होने लगता है तो उसे भूल जाते हैं. उसकी कृपा का आनंद ही हमें उसकी कृपा से
वंचित कर देता है तभी कृष्ण ने गोपियों को अपना वियोग दिया था, ताकि वे उसे भूलें
नहीं.
कभी-कभी किसी से कोई
काम कराने के लिए हम क्रोध का आश्रय लेते हैं, यदि भीतर प्रेम है और सजग रहकर केवल
ऊपर से क्रोध कर रहे हैं तब भी इसका बीज कहीं अंदर है, तभी यह संभव है, क्षणिक
क्रोध भी तभी होता है जब भीतर इसका संस्कार हो. संस्कार को जड़ से मिटाए बिना
शाश्वत सुख का अनुभव नहीं हो सकता, सजगता ही इसके लिये साधन है.
बहुत गहन और सूक्ष्म विवेचन।
ReplyDelete‘लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर’
ReplyDeleteशाश्वत भाव लिए कथन
मन जब वर्तमान में नहीं होता तो चिंता आकर घेर लेती है. वर्तमान में अपार शक्ति है, इस क्षण में यदि मन टिक जाये तो मन स्थिर ही नहीं रहता बल्कि निर्दोष हो जाता है. सहज शांति का अनुभव होता है. ‘लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर’ संभवतः जब हम विनम्र होते हैं तभी वर्तमान में टिक पाते हैं,
ReplyDeleteबढ़िया सीख /विचार .
thoughtful post
ReplyDeleteउत्तम विचार।
ReplyDeleteसुबह सुबह आपकी बातें पढ़ कर एक सुकून का अनुभव होता है ...!!बहुत सुंदर मार्गदरशन ...आभार अनीता जी ...!!
ReplyDeleteइमरान, मनोज जी, रमाकांत जी, एस एम, अनुपमा जी, आप सभी का स्वागत व आभार!
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