जिसका मन स्थिर नहीं है, वह क्षण-क्षण में रुष्ट-तुष्ट होता है, और ऐसे मन का
विश्वास नहीं किया जा सकता. हम स्थिर मना बनें यही साधना का लक्ष्य है. भगवद् गीता
का मूल उपदेश भी यही है. इसका उपाय भी कृष्ण ने बताया है, परमात्मा में मन लगाएं
तो वह अपने आप ही जगत के उतार-चढ़ाव के द्वंद्वों से मुक्त हो जाता है. एक बार कोई
उसकी शरण में आ जाये वह हर पल उसे अपनी निगरानी में रखते हैं, उसके कुशल-क्षेम की
जिम्मेदारी ले लेते हैं. फिर वह इधर-उधर जाना भी चाहे तो उसे रास नहीं आता.
परमात्मा हमारे मन की गहराई में स्थित है, उसका स्मरण करते करते हम वहीं पहुंचते
जाते हैं, जो ज्ञान, प्रेम और सामर्थ्य हमारे भीतर सुप्त है धीरे-धीरे प्रकट होने
लगता है. हम वर्तमान में रहना सीख जाते हैं, क्योंकि तब भूत या भविष्य का कोई अर्थ
नहीं रह जाता, हम थे, हम हैं, हम रहेंगे यह भाव दृढ़ होता जाता है. तब यह छोटे-छोटे
ताप आदि हमें हिला नहीं पाते. परम रहस्य स्वयं खुलने लगते हैं, भीतर-बाहर उसी एक
परमात्मा की सत्ता का दर्शन होता है. उसका प्रेम अनुपम है, वह अवर्णनीय है, वह
मात्र अनुभव से ही जाना जा सकता है. उसकी कृपा और सदगुरु का ज्ञान साधक की यही सबसे
बड़ी पूंजी होती है.
स्थिर करना होता है साधना से - बिल्कुल . आत्मशक्ति साधना का ही रूप है
ReplyDeleteजिसका मन स्थिर नहीं है, वह क्षण-क्षण में रुष्ट-तुष्ट होता है, और ऐसे मन का विश्वास नहीं किया जा सकता. SO TRUE.
ReplyDeleteपरमात्मा में मन लगाएं तो वह अपने आप ही जगत के उतार-चढ़ाव के द्वंद्वों से मुक्त हो जाता है.
ReplyDeleteसुन्दर भाव लिए
रश्मि जी, भावना जी, व रमाकांत जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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