जून २००३
जगत जीवन का विराट रूप है, जीवन में विषमता है, जगत में भी विषमता है, पर इसके
पीछे जो समता है वही इन्हें जोड़े हुए है, हमें समता को ही पाना है, समत्व योग की
साधना करनी है. विषमता ही आत्मा का हनन है. यदि स्वार्थ प्रमुख है समता सिद्ध नहीं
हो सकती. परार्थ और परमार्थ जीवन में हों तभी समता आती है. मूलतः सभी एक ही सत्ता
से प्रकटे हैं, सभी एक हैं, जब यह अभेद दृष्टि आ जाती है तभी समता घटती है. तभी
अंतर में एक ऐसी अवस्था का अनुभव होता है जो किसी भी बाहरी कारण पर निर्भर नहीं
है. वही परमात्मा है, वहाँ कोई भेद नहीं पर भक्त अपने अंतर का प्रेम व्यक्त करने
के लिये भेद मान लेता है, वास्तव में यह उसी की लीला है, ईश्वर स्वयं ही स्वयं से
प्रेम करने के लिये विभिन्न रूपों में प्रकट होता है. अध्यात्म की चरम स्थिति में
भौतिक और अध्यात्मिक का भी कोई भेद नहीं रह जाता. जड़ के पीछे चेतन पर ही भक्त की
दृष्टि रहती है.
अध्यात्म की चरम स्थिति में भौतिक और अध्यात्मिक का भी कोई भेद नहीं रह जाता. जड़ के पीछे चेतन पर ही भक्त की दृष्टि रहती है.
ReplyDeleteजीवन का सार
विजय जी व रमाकांत जी, स्वागत व आभार!
ReplyDeleteसुन्दर विचार ।
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