ध्यान का लक्ष्य है देहात्मभाव
की निवृत्ति ! देह को स्थिर इसलिए रखते हैं कि मन के प्रति सजग हो जाएँ. देह और
आत्मा को जोड़ने वाला पुल है मन. देह को आसन में बैठकर उसे भूल जाना है. मन से
चिन्तन करना है, हम देह नहीं हैं. स्वयं को देह से अन्य मानने का अर्थ है हम निराकार
हैं. दृष्टि व मन में आकार हैं, इनका आदि-अंत है, चैतन्य का आदि-अंत नहीं. हम एक
हैं. हममें कोई अवयव नहीं. एक में मन खो जाता है. हमारे चारों ओर यदि देखें तो
आकाश निराकार है, हम भी आकाशवत हैं. स्थूल आकाश आधिभौतिक है, चित्ताकाश आधिदैविक
है तथा चिदाकाश आध्यात्मिक है. चिदाकाश न स्थूल है न सूक्ष्म, यह दोनों के पार
है. इसका अनुभव ही ध्यान है.
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